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वेश्या (कविता) [Contest ]

मेरी आवाज़ सुनो
मेरी आवाज़ सुनो
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वो हर शाम दिख जाती /
उस खंडहर सा इमारत के नीचे /
जिसकी सफेदी,
दिवाल के पपड़ियों के साथ-
उजड़ गई थी वर्षों पहले /
लेकिन उसकी कोमल चमड़ियों को-
सभ्य समाज नोच-नीच कर भी –
नहीं उजाड़ पाया था अब तक /
टूटी खिड़किया, अधखुले दरवाजे/
दीवालों पर लटकती लताए /
शाम होते ही लगती थी टिमटिमाने-
केरोसिन की ढिबरिया /
सज जाती थी महफिले /
लेकिन उन महफिलों में,
अब नहीं सुनाई पड़ती थी-
गीत और संगीत की ध्वनियाँ /
केवल सुन पड़ती थी/
ग्राहकों को लुभाने की आवाज़ें /,
“सौदों” का मोल-भाव,
मनचलों की भद्दी फब्तियां,
बदले में गाली-गलौज /
दबंगों और पुलिस के –
छेड़छाड़ एवं वसूली के शब्द /
लेकिन कभी हार नहीं माना उसने /
चिलचिलाती धुप, मूसलाधार वर्षा,
कड़ाके की ठंढ या बसंत की शाम /
खड़ी रहती सज- धज कर /
इंतज़ार में ग्राहकों के /
जो दिन में इस और देखने से भी –
कतराते थे /
लेकिन शाम होते ही –
खीचे चले आते थे /
तृप्त करने अपने आप को /
उसके यौवन का पान कर /
गालों पर लाली, होठों पर –
सुर्ख लाल रंग /
चेहरे पर सफ़ेद पाउडर की मोटी परत /
पतले कपडे की पहनी साडी से-
झाँकता एक-एक अंग /
लगती थी साक्षात अप्सरा-
उतरी हो आकास से /
अकेली नहीं /
कई और भी है साथ में /
किसी को मजबूरी ने –
इस दलदल तक लाया /
किसी को किसी ने-
यहाँ लाकर फँसाया/*
*/कुछ ने तो शौकिया –
इस पेशे को अपनाया /
जो भी हो वह-
पैसों के बदले –
अपना तन बेचती है /
“सभ्य समाज” का प्यास बुझाकर/
केवल अपना पेट भरती है /

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