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सुनती हूँ ना कि मै –
सैकड़ो वर्षो की पराधिनता से मुक्त हुई हूँ।
तुमने मेरी गुलामी की जंजीरों को काटकर,
मझे स्वतंत्र किया है।
लेकिन मुझे याद है-
मेरी खुली बालें लहराती थी-
मुजफ्फराबाद, रावलपिंडी, लाहौर से क्वेटा तक।
आज मुझे नहीं दिखाई पड़ती है,
मेरी लहराती, उन्मुक्त बालें।
रोज नए नए जख्म मेरे सर में-
पैदा कर रहे है असहनीय वेदना।
मझे नहीं पता कब खो दूंगी मैं अपने शीष को।
फिर भी मैं स्वतंत्र हु।
तुमने मुझे आजाद किया है।
मुझे याद आता हैं-
मैं अपनी बाँहें फैलाकर छू लेती थी,
एक तरफ लहराती बंगोप सागर की लहरों को तो ,
दूसरी ओर अरब सागर की पवित्र नीर को,
मेरे आँचल लहराते थे उन्मुक्त होकर-
जैकोआबाद, करांची, बलूचिस्तान से,
ढाका, खुलना, चिटटगांव तक।
आज मेरी बाहें सिमट गई है,
कलकत्ते से कच्छ के बीच।
फिर भी मैं स्वतंत्र हु।
तुमने मुझे आजाद किया है।
मुझे याद है-
मेरा प्यार पाकर उन्नत हुए थे-
हिन्दू, बौद्ध , जैन, मुग़ल, अफगान, फ्रेंच और अँगरेज।
लेकीन आज जिनको अपने रक्त से सिंचा,
वही मेरा लहू पी रहे हैं,
मेरी काया के टुकडे कर दिए हैं।
फिर भी मैं स्वतंत्र हु।
तुमने मुझे आजाद किया है।
तब भी मुझे आशा है।
फिर कोई मिलेगा मुझे समुद्रगुप्त, अशोक, शिवाजी, पटेल।
जो लौटाएगा मेरा खोया रूप।
मै बनूँगी फिर तुम्हारी-
अखंड भारत माँ।
Posted by Rajesh Kumar Srivastav at 03:13 No comment
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